मानव शरीर संरचना

मानव शरीर संरचना

मानव शरीर संरचना

पाचन तंत्र

भोजन के जटिल पोषक पदार्थो व बड़े अणुओं को विभिन्न रासायनिक क्रियाओं और एंजाइम की सहायता से सरल, छोटे व घुलनशील अणुओं में बदलना पाचन कहलाता है। तथा जो तंत्र यह कार्य करता है। पाचन तंत्र कहलाता है।

इसके मुख्य रूप से दो भाग है।

पाचन अंग :-

  1. मुख गुहा
  2. ग्रसनी
  3. ग्रासनाल
  4. अमाशय
  5. छोटी आंत
  6. बड़ी आंत

पाचन ग्रंन्थियां :-

  1. लार ग्रंन्थि
  2. यकृत ग्रंन्थि
  3. अग्नाशय

मुख गुहा :-

मुख गुहा में निम्न संरचनाएं होती है।

दांत

मनुष्य के एक जबड़े में 16 दांत व दानों जबड़ों में 32 दांत होते है। दुधिया(अस्थाई) दांत 20 होते है। मनुष्य में चार प्रकार के दांत पाये जाते है।

1. कृंतक – सबसे आगे के दांत भोजन को कुतरने व काटने का कार्य करते है। प्रत्येक जबड़े में 4-4 होते है। एक और 2 दांत होते है।

2. रदनक – भोजन को चिरने फाड़ने कार्य करते है। मासाहारीयों में अधिक विकसीत होते है। प्रत्येंक जबड़े में 2-2 होते है।

3. चवर्णक – चबाने कार्य करते है। प्रत्येक जबड़े में 4-4 होते है।

4. अग्र चवर्णक – ये भी चबाने का कार्य करते है। प्रत्येक जबड़े में 6-6 होते है।

अन्तिम चवर्णक दांत को बुद्धि दांत कहते है।

जीभ :-

जीभ मुख के तल पर एक पेशी होती है, जो भोजन को चबाना और निगलना आसान बनाती है। यह स्वाद अनुभव करने का प्रमुख अंग होता है, क्योंकि जीभ स्वाद अनुभव करने का प्राथमिक अंग है, जीभ की ऊपरी सतह पेपिला और स्वाद कलिकाओं से ढंकी होती है। जीभ का दूसरा कार्य है स्वर नियंत्रित करना।

लार :-

मनुष्य में तीन जोड़ी लार ग्रंन्थियां पाई जाती है। लार की प्रकृति हल्की अम्लीय होती है।

लार में टायलिन एन्जाइम पाया जाता है। यह एन्जाइम स्टार्च का पाचन करता है।

भोजन का पाचन मुंह से शुरू हो जाता है।

ग्रसनी :-

यह पाइप के समान संरचना है। इसमें कोई पाचन ग्रंन्थि नहीं होती है। यह भोजन को मुख गुहिका से अमाशय तक पहुंचाती है।

अमाशय :-

यह भोजन का अस्थाई अण्डार होता है। इसमें भोजन लगभग 3-4 घण्टे तक रूकता है। इसमें जठर रस स्त्रावित होता है। जठर रस में HCl, पेप्सीन, रेनिन, म्यूकस(श्लेष्मा) होती है।

पेप्सीन – प्रोटिन का पाचन।

रेनिन – दुध का पाचन(दुध को दही में बदलता है)।

म्यूकस अमाशय की दीवार पर दक्षात्मक आवरण बनाती है। अमाशय को पेप्सीन व HCl से बचाने के लिए। जठर रस अम्लिय होता है।

तथ्य :-

अमाशय में कार्बोहाइड्रेट का अपघटन नहीं होता, बल्कि प्रोटिन का अपघटन होता है।

पेप्सीन एन्जाइम द्वारा अमाश्य की दीवार का आंशिक पाचन अल्सर कहलाता है।

अमाशय में लुगदी समान भोजन काइम कहलाता है।

यकृत :-

liver में पित्तरस का निर्माण और पित्ताशय में संग्रह किया जाता है। पित्तरस में कोई भी एन्जाइम नहीं पाया जाता है। परन्तु यह भोजन के अम्लीय माध्यम को उदासीन बनाकर क्षारीय में परिवर्तीत करती है ताकि अग्नाश्य रस में उपस्थित एन्जाइम कार्य कर सके।

यकृत के द्वारा जहर से मृत्यु होने कि जानकारी प्राप्त होती है।

पोलीयो नामक रोग यकृत के कारण ही होता है।

अग्नाशयी रस के एन्जाइम

ट्रिपसीन – प्रोटीन / पेप्टोन अपघटन।

एमाइलेज – कार्बोहाइड्रेट अपघटनकारी।

लाइपेज – वसा अपघटनकारी।

छोटी आंत :-

क्षुद्रांत्र या छोटी आंत (स्माल इन्टेस्टिन) मानव पाचन तंत्र का एक महत्वपूर्ण भाग है जो आमाशय से आरम्भ होकर बृहदांत्र (बड़ी आंत) पर पूर्ण होती है। क्षुदान्त्र में ही भोजन का सबसे अधिक पाचन और अवशोषण होता है। इसमें दो ग्रंन्थियों द्वारा रस आता है।

  1. यकृत 2. अग्नाश्य

बड़ी आंत

इसमें कोई पाचन क्रिया नहीं होती केवल जल व खनिज लवणों का अवशोषण होता है । अपचित भोजन रेक्टम में मलद्वार के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।

छोटी आंत व बड़ी आंत का जोड़ सीकम कहलाता है। सीकम के आगे अंगुठेदार संरचना एपेन्डिक्स कहलाती है।

रक्त परिसंचरण तंत्र :-

रक्त परिसंचरण तंत्र की खोज विलियम हार्वे ने कि थी ।

पक्षियों एवं स्तनधारियों में बंद परिसंचरण (रक्त वाहिनियों में बहता है।) तंत्र होता है। कीटों में खुला परिसंचरण (रक्त सिधा अंगों के सम्पर्क में रहता है।)तंत्र होता है।

इसके मुख्य रूप से 3 अंग है।

  • हृदय
  • रक्त
  • रक्त वाहिनियां

हृदय :-

मानव हृदय लाल रंग का तिकोना, खोखला एवं मांसल अंग होता है, जो पेशिय उत्तकों का बना होता है। यह एक आवरण द्वारा घिरा रहता है जिसे हृदयावरण कहते है। इसमें पेरिकार्डियल द्रव भरा रहता है जो हृदय की ब्राह्य आघातों से रक्षा करता है।

हृदय में मुख्य रूप से चार प्रकोष्ट होते है, जिन्हें लम्बवत् रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है।

दाहिने भाग में – बायां आलिन्द एवं बायां निलय

बायें भाग में – दायां आलिन्द एवं दायां निलय

हृदय का कार्य :-

इसका प्रमुख कार्य  शरीर के विभिनन भागों को रक्त पम्प करना है। यह कार्य आलिन्द व निलय के लयबद्ध रूप से संकुचन एवं विश्रांती(सिकुड़ना व फैलना) से होता है। इस क्रिया में ऑक्सीकृत रक्त फुफ्फुस शिरा से बांये आलिन्द में आता है वहां से बायें निलय से होता हुआ महाधमनी द्वारा शरीर में प्रवाहित होता है। शरीर से अशुद्ध या अनाक्सीकृत रक्त महाशिरा द्वारा दाएं आलिंद में आता है और दाएं निलय में होता हुआ फुफ्फुस धमनी द्वारा फेफड़ों में ऑक्सीकृत होने जाता है। यही क्रिया चलती रहती है।

  • एक व्यस्क मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72 बार धड़कता है। जबकि एक नवजात शिशु का 160 बार।
  • एक धड़कन में हृदय 70 एम. एल. रक्त पंप करता है।
  • हृदय में आलींद व निलय के मध्य कपाट होते है। जो रूधिर को विपरित दिशा में जाने से रोकते हैं। कपाटों के बन्द होने से हृदय में लब-डब की आवाज आती है।
  • हृदय धड़कन का नियंत्रण पेस मेकर करता है। जो दाएं आलिन्द में होता है इसे हृदय का हृदय भी कहते है।
  • हृदय धड़कन का सामान्य से तेज होना – टेकीकार्डिया
  • हृदय धड़कन का सामान्य से धीमा होना -ब्रेडीकार्डिया
  • हृदय का वजन महिला – 250 ग्राम, पुरूष – 300 ग्राम
  • हृदय के अध्ययन को कार्डियोलाजी कहते है।
  • प्रथम हृदय प्रत्यारोपण – 3 दिसम्बर 1967 डा. सी बर्नार्ड(अफ्रिका)
  • भारत में प्रथम 3 अगस्त 1994 डा. वेणुगोपाल
  • हृदय में कपाटों की संख्या – 4 होती है।
  • जारविस -7 प्रथम कृत्रिम हृदय है। जिसे राबर्ट जार्विक ने बनाया।
  • सबसे कम धड़कन ब्लु -व्हेल के हृदय की है – 25/मिनट
  • सबसे अधिक धड़कन छछुंदर – 800/मिनट
  • एक धड़कन में हृदय 70 एम. एल. रक्त पंप करता है।
  • मानव शरीर का सबसे व्यस्त अंग हृदय है।
  • हृदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं।

रक्त :-

  • रक्त एक प्रकार का तरल संयोजी ऊतक है। रक्त का निर्माण अस्थि मज्जा में होता है तथा भ्रूणावस्था में यकृत में रक्त का निर्माण होता है।
  • सामान्य व्यक्ति में लगभग 5 लीटर रक्त होता है। रक्त का Ph मान 7.4(हल्का क्षारीय) होता है।
  • रक्त का तरल भाग प्लाज्मा कहलाता है। जो रक्त में 55 प्रतिशत होता है। तथा शेष 45 प्रतिशत कणीय(कणिकाएं) होता है।

प्लाज्मा :-

  • प्लाज्मा में लगभग 92 प्रतिशत जल व 8 प्रतिशत कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ घुलित या कोलाइड के रूप में होते है।
  • प्लाज्मा शरीर को रोगप्रतिरोधक क्षमता प्रदान करता है। उष्मा का समान वितरण करता है। हार्मोन को एक स्थान से दुसरे स्थान पर ले कर जाता है।

कणिय भाग(कणिकाएं) :-

रूधिर कणिकाएं तीन प्रकार की होती है।

लाल रूधिर कणिकाएं(RBC) :-

  • इन्हे एंथ्रोसाइट्स कहा जाता है ।
  • ये कुल कणिकाओं का 99 प्रतिशत होती है।
  • ये केन्द्रक विहीन कोशिकाएं है।
  • इनमें हिमोग्लोबिन पाया जाता है। जिसके कारण रक्त का रंग लाल होता है।
  • हीमोग्लोबिन O2 तथा CO2 का शरीर में परिवहन करता है। इसकी कमी से रक्तहीनता(एनिमिया) रोग हो जाता है।
  • लाल रक्त कणिकाएं प्लीहा में नष्ट होती है। अतः प्लीहा को लाल रक्त कणिकाओं का कब्रिस्तान भी कहते है।
  • एक व्यस्क मनुष्य में लाल रक्त कणिकाओं की संख्या लगभग 50 लाख/mm3 होती है
  • इनका जीवनकाल 120 दिन होता है।

श्वेत रक्त कणिकाएं(WBC) :-

  • ये प्रतिरक्षा प्रदान करती है।
  • इनको ल्यूकोसाइट भी कहते है।
  • इनकी संख्या 10 हजार/mm3 होती है।
  • ये अस्थि मज्जा में बनती है।
  • केन्द्रक की आकृति व कणिकाओं के आधार पर श्वेत रक्त कणिकाएं 5 प्रकार की होती है।
  • रक्त में श्वेत रक्त कणिकाओं का अनियंत्रित रूप से बढ़ जाना ल्यूकेमिया कहलाता है। इसे रक्त कैसर भी कहते है।
  • इनका जीवनकाल 2-4 दिन का होता है ।

रक्त पट्टिकाएं(प्लेटलेट्स) :-

  • ये केन्द्रक विहिन कोशिकाएं है जो रूधिर का धक्का बनने में मदद करती है।
  • इनका जीवनकाल 7 दिन का होता है। ये केवल स्तनधारियों में पाई जाती है।
  • रक्त फाइब्रिन की मदद से जमता है।
  • इन्हे थ्रोम्बोसाइट कहते है ।

लसिका तंत्र :-

हल्के पीले रंग का द्रव जिसमें RBC तथा थ्रोम्बोसाइट अनुपस्थित होता है। केवल WBC उपस्थित होती है।

कार्य :-

  • रक्त की Ph को नियंत्रित करना।
  • रोगाणुओं को नष्ट करना।
  • वसा वाले ऊतकों को गहराई वाले भागों तक पहुंचाना।
  • लम्बी यात्रा करने पर लसिका ग्रन्थि इकठ्ठा हो जाती है, तब पावों में सुजन आ जाती है।

रक्त से संबन्धित अन्य तथ्य :-

  • रक्त का अध्ययन हिमोटालाजी कहलाता है।
  • रक्त निर्माण की प्रक्रिया हीमोपोइसिस कहलाती है।
  • ऊट व लामा के RBC में केन्द्रक उपस्थित होता है।
  • रक्त का लाल रंग फेरस आयन के कारण होता है जो हिमाग्लोबिन में पाया जाता है।
  • ऊंचाई पर जाने पर RBC की मात्रा बढ़ जाती है।
  • लाल रक्त कणीका का मुख्य कार्य आक्सीजन का परिवहन करना है।
  • मानव शरीर में सामान्य रक्त चाप 120/80 एम.एम. होता है।
  • लाल रक्त कणीकाओं का जीवनकाल 120 दिन का होता है।

रक्त समुह :-

मनुष्य के रक्त समुहों की खोज कार्ल लैण्डस्टीनर ने कि इन्हें चार भागों में बांटा जा सकता है।

    A(25%)

    B(35%)

    AB(10%)

    O(30%)

प्रतिजन(Antigen) – ये ग्लाइको प्रोटीन के बने होते है। ये RBC की सतह पर पाये जाते है। ये दो प्रकार के होते है।

    A

    B

प्रतिरक्षी(Antibody) – ये प्रोटिन के बने होते है। ये प्लाज्मा में पाए जाते है। ये दो प्रकार के होते है।

    a

    b

ये रक्त में प्रतिजन से विपरित यानि A प्रतिजन वाले रक्त में b प्रतिरक्षि होते है।

Blood GroupAntigenAntibody
AAb
BBa
ABA,BNIL
ONila,b

यदि दो भिन्न समुह के रूधिर को व्यक्ति में प्रवेश करवाया जाये तो प्रतिरक्षी व प्रतिजन परस्पर क्रिया कर चिपक जाते है। जिसे रक्त समुहन कहते है।

Rh factor :-

इसकी खोज लैण्डस्टीनर तथा वीनर ने की यह एक प्रकार का प्रतिजन है। जिन व्यक्त्यिों में यह पाया जाता है उन्हें Rh +ve व जिनमें नहीं पाया जाता उन्हें Rh –ve कहते है।

  • यदि Rh +ve पुरूष का विवाह Rh –ve महिला से होता है तो पहली संतान तो सामान्य होगी परन्तु बाद वाली संतानों की भ्रूण अवस्था में मृत्यु हो जाती है। या बच्चा कमजोर और बिमार पैदा होता है इससे बचाव के लिए पहले बच्चे के जन्म के बाद Rho का टिका लगाया जाता है जिससे गर्भाश्य में बने प्रतिरक्षी निष्क्रीय हो जाते है।
  • समान रूधिर समुह व भिन्न आर. एच. कारक वाले व्यक्तियों के मध्य रक्तदान कराने पर भी रूधिर समुहन हो जाने से रोगी की मृत्यु हो जाती है।

‘पीपी’ ब्लड ग्रुप :-

  • कर्नाटक में कस्तूरबा मेडिकल कालेज ने एक रेयर ब्लड गुप का पता लगाया है। इसका नाम ‘पीपी’ या ‘पी नल फेनोटाइप’ है। डाक्टरों का कहना है कि यह देश का पहला और अभी तक का इकलौता ऐसा व्यक्ति है। मरीज के ब्लड में ‘पीपी फेनोटाइप’ सेल्स हैं।
  • एक बार में मनुष्य 10 प्रतिशत रक्तदान कर सकता है। 2 सप्ताह बाद पुनः कर सकता है।
  • अधिकत्म 42 दिन तक रक्त को रक्त बैंक में रख सकते है।
  • रक्त को 4.4 oC तापमान पर रखा जाता है।
  • रक्त को जमने से रोकने के लिए इसमें सोडियम साइट्रेट, सोडियम ड्रेक्सट्रेट व EDTA मिलाते है जिसे प्रतिस्कन्दक कहते है। ये कैल्शीयम को बांध लेते है। जिससे रक्त जमता नहीं है।
  • Rh factor की खोज रीसस बंदर में कि गई।
  • सर्वदाता रक्त-समूह ओ ‘O’ है।
  • रक्त समूह AB को सर्वग्राही रक्त-समूह कहा जाता है।

रक्त वाहिनियां :-

शरीर में रक्त का परिसंचरण वाहिनियों द्वारा होता है। जिन्हें रक्त वाहिनियां कहते है। मानव शरीर में तीन प्रकार की रक्त वाहिनियां होती है।

1. धमनी 2. शिरा 3. केशिका

धमनी :-

शुद्ध रक्त को हृदय से शरीर के अन्य अंगों तक ले जाने वाली वाहिनियां धमनी कहलाती है। इनमें रक्त प्रवाह तेजी व उच्च दाब पर होता है। महाधमनी सबसे बड़ी धमनी है। फुफ्फुस धमनी में अशुद्ध रक्त प्रवाहित होता है।

शिरा :-

शरीर के विभिन्न अंगों से अशुद्ध रक्त को हृदय की ओर लाने वाली वाहिनियां शिरा कहलाती है। फुफ्फुस शिरा में शुद्ध रक्त होता है।

केशिकाएं :-

ये पतली रूधिर वाहिनियां है इनमें रक्त बहुत धीमे बहता है।

रूधिर दाब :-

  • हृदय जब रक्त को धमनियों में पंप करता है तो धमनियों की दिवारों पर जो दाब पड़ता है उसे रक्त दाब कहते है।
  • एक सामान्य मनुष्य में रक्त दाब 120/80 होता है।
  • रक्त दाब मापने वाले यंत्र को स्फिग्नोमिटर कहते है।

तथ्य :-

  • प्रत्येक रक्त कण को शरीर का चक्र पुरा करने में लगभग 60 सैकण्ड लगते हैं।
  • सामान्य मनुष्य के शरीर में 5 लीटर रक्त होता है ।
  • प्रत्येक धड़कन में हृदय लगभग 70 एम.एल. रक्त पंप करता है।
  • सामान्य मनुष्य का हृदय एक मिनट(60 सैकण्ड) में 70-72 बार धड़कता है।
  • अतः 70X70 – 4.9 ली. जो की लगभग सामान्य मनुष्य के कुल रक्त के बराबर है।

तंत्रिका तंत्र :-

मस्तिष्क मेरूरज्जू तथा सभी तंत्रिकाएं मिलकर तंत्रिका तंत्र का निर्माण करते है।

मानव तंत्रिका तंत्र के तीन भाग है –

1. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र

  1. मस्तिष्क
  2. मेरूरज्जु

2. परिधीय तंत्रिका तंत्र

  1. कपाल तंत्रिकाएं
  2. मेरू तंत्रिकाएं

3. स्वायत्त(स्वंय नियंत्रण) तंत्रिका तंत्र

  1. अनुकम्पी
  2. पैरानुकम्पी

तंत्रिका कोशिका (न्युरान ):-

तत्रिका तंत्र में सभी तंत्रिकाएं, तंत्रिका ऊतको से बनी होती है। इन ऊत्तकों की कोशिकाएं तत्रिका कोशिका कहलाती है। तंत्रिका कोशिका शरीर की सबसे बड़ी कोशिका है।

इसके तीन भाग है – साइटान, डेन्ड्रान, एक्सान।

केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र :-

मस्तिष्क :-

मस्तिष्क का भार 1.4 किलो या 1400 ग्राम होता है। यह ज्ञात ब्रह्माण्ड की सर्वाधिक जटिल संरचना है। यह संम्पुर्ण शरीर पर नियंत्रण करता है।

मस्तिष्क तथा मेरूरज्जु के चारों और आवरण पाया जाता है। जिसे मस्तिष्कावरण या मस्तिष्क झिलियां कहते है जो मस्तिष्क को बाहरी आघातों से बचाता है। ये तीन स्तरों पर होता है – दृढ़तानिका, जालतनिका, मृदुतानिका।

मस्तिष्क के भाग :-

अग्र(प्रमस्तिष्क) :-

सेरीब्रम(हेमीस्फीयर)(प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध) – 80-85 प्रतिशत भाग मस्तिष्क का बनाता है। यह मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है। कार्य – सोचने, विचारने, बौद्धिक क्षमता, ज्ञान, चेतना आदि का केन्द्र।

डाय सिफेलान(अग्र पश्च मस्तिष्क) – हाइपोथेलेमस भाग पाया जाता है जो भूख, प्यास, निद्रा, थकान, ताप का ज्ञान करवाता है।

मध्य (सेरीब्रल) :- दोनों भागों को जोड़ने के लिए कार्पस कैलोसम पट्टी पाई जाती है।

यह चार ठोस पिण्डों में बंटा होता है। उपरी दो पिण्ड दृष्टि नीचे के दो पिण्ड श्रवण ज्ञात करवाते है।

पश्चभाग :-

(i) सेरीबेलम(अनुमस्तिष्क) – यह मस्तिष्क का दुसरा बड़ा भाग है जो ऐच्छिक पेशियों को नियंत्रित करता है। जैसे – हाथ, पैर का नियंत्रण

(ii) पोन्स :- बेरेलाई श्वसन नियंत्रण करता है।

(iii) मेडुला ओब्लिगेट्टा – समस्त अनैच्छिक क्रियाओं का नियंत्रण करता है। जैसे – रक्तदाब, हृदय की धड़कन। यह मस्तिष्क का अंन्तिम भाग है। इसके अन्तिम सिरे फोरामेन मेग्नस से मेरूरज्जु रिकलती है।

मस्तिष्क का संम्पूर्ण भाग ठोस नहीं होता, इसमें बीच-बीच में खोखले स्थान पाये जाते है जिनको मस्तिष्क गुहाएं कहते है जिनमें प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भरा रहता है।

मेरूरज्जु :-

मेरूरज्जु की लंबाई लगभग 54 सेमी. होती है। तथा इसका अंतिम सिरा पतले सुत्र के रूप में होता है। इस पर भी मस्तिष्क के समान आवरण पाया जाता है। और इसमें श्वेत द्रव भरा होता है। यह बीच से खोखली होती है। जिसे न्यूरोसील कहते है।

यह प्रतिवर्ती क्रियाओं का नियंत्रण करता है और से आने जाने वाले उद्दीप्तों का संवहन करता है।

परिधिय तंत्रिका तंत्र :-

इसमें मस्तिष्क व मेरूरज्जु से निकलने वाली तंत्रिकाएं होती है। जिनमें 12 जोड़ी कपालीय तंत्रिका एवं 31 जोड़ी मेरू तंत्रिकाएं होती है।

स्वायत तंत्रिका तंत्र :-

स्वायत तंत्रिका तंत्र की खोज लेन्जले ने कि। तंत्रिका तंत्र का यह भाग मानव चेतना से प्रभावित नहीं होता। इसके दो भाग है –

अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र :-

यह तंत्रिका तंत्र डर, भय, पीड़ा, क्रोध आदि प्रभावों में –

  1. हृदय गति को तेज करता है।
  2. आंख की पुतली को फैलाता है।
  3. श्वसन दर को तेज कर देता है।
  4. यह रक्त के लाल रूधिर कणिकाओं की संख्या को बढ़ा देता है।

परानुकम्पी तंत्रिका तंत्र :-

यह तंत्रिका तंत्र अनुकम्पी से विपरित होता है। यह सुख, आराम आदि स्थितियों में –

  1. आंख की पुतली को सिकोड़ता है।
  2. यह लार के स्त्राव व पाचक रसों में वृद्धि करता है।

अंतःस्त्रावी तंत्र(ग्रंथियां एवं हार्मोन्स) :-

थामस एडिसन को अन्तःस्त्रावी विज्ञान का जनक कहा जाता है। अंतःस्त्रावी तंत्र के अध्ययन को एन्ड्रोक्राइनोलोजी कहते है

मानव शरीर की मुख्य अन्तःस्त्रावी ग्रंथि एवं उनसे स्त्रावित हार्मोन्स एवं उनके प्रभाव निम्न है।

1. पीयूष ग्रन्थि :-

पीयूष ग्रन्थि मस्तिष्क में पाई जाती है। यह मटर के दाने के समान होती है। यह शरीर की सबसे छोटी अतःस्त्रावी ग्रंथी है। इसे मास्टर ग्रन्थि भी कहते है।

इसके द्वारा आक्सीटोसीन, ADH/वेसोप्रेसीन हार्मोन, प्रोलेक्टीन होर्मोन, वृद्धि हार्मोन स्त्रावित होते है। इन्हें संयुक्त रूप से पिट्यूटेराइन हार्मोन कहते है।

(i) आक्सीटोसीन हार्मोन :-

यह हार्मोन मनुष्य में दुध का निष्कासन व प्रसव पीड़ा के लिए उत्तरदायी होता है। इसे Love हार्मोन भी कहते है। यह शिशु जन्म के बाद गर्भाशय को सामान्य दशा में लाता है।

(ii) ADH/ वैसोप्रेसीन :-

यह हार्मोन वृक्क नलिकाओं में जल के पुनरावशोषण को बढ़ाता है व मूत्र का सांद्रण करता है इसकी कमी से बार-बार पेशाब आता है।

(iii)वृद्धि हार्मोन(सोमेटाट्रोपिन) :-

इसकी कमी से व्यक्ति बोना व अधिकता से महाकाय हो जाता है।

(iv) प्रोलैक्टिन(PRL)/LTH/MTH:-

गर्भावस्था में स्तनों की वृद्धि व दुध के स्त्रावण को प्रेरित करता है।

(v)L-H हार्मोन(ल्यूटीनाइजिंग हार्मोन)

यह हार्मोन लिंग हार्मोन के स्त्रावण को प्रेरित करता है।

(vi) F-SHहार्मोन

यह हार्मोन पुरूष में शुक्राणु व महिला में अण्डाणु के निर्माण को प्रेरित करता है।

2. थाइराइड ग्रन्थि :-

यह ग्रन्थि गले में श्वास नली के पास होती है यह शरीर की सबसे बड़ी अंतरस्त्रावी ग्रन्थि है। इसकी आकृति एच होती है। इसके द्वारा थाइराक्सीन हार्मोन स्त्रावित होता है। ये भोजन के आक्सीकरण व उपापचय की दर को नियंत्रित करता है। कम स्त्रावण से गलकण्ड रोग हो जाता है।

इसके कम स्त्रावण से बच्चों में क्रिटिनिज्म रोग व वयस्क में मिक्सिडीया रोग हो जाता है। अधिकता से ग्लुनर रोग, नेत्रोन्सेधी गलगण्ड रोग हो जाता है।

3. पेराथाइराइड ग्रन्थि :-

यह ग्रन्थि गले में थाइराइड ग्रन्थि के पीछे स्थित होती है। इस ग्रन्थि से पैराथार्मोन हार्मोन स्त्रावित होता है। यह हार्मोन रक्त में केल्सियम बढ़ाता है जो विटामिन डी की तरह कार्य करता है। इस हार्मोन की कमी से टिटेनी रोग हो जाता है।

4. थाइमस ग्रन्थि

थाइमस ग्रन्थि को प्रतिरक्षी ग्रन्थि भी कहते है। इससे थाइमोसिन हार्मोन स्त्रावित होता है। यह हृदय के समीप पाई जाती है। यह ग्रन्थि एंटीबाडी का स्त्रावण करती है। यह ग्रन्थि बचपन में बड़ी व वयस्क अवस्था में लुप्त हो जाती है। यह ग्रन्थि टी-लिम्फोसाडट का परिपक्वन करती है।

इसका प्रभाव लैंगिक परिवर्धन व प्रतिरक्षी तत्वों के परिवर्धन पर पड़ता है।

5. अग्नाश्य ग्रन्थि :-

अग्नाश्य ग्रन्थि को मिश्रत(अन्तः व बाहरी) ग्रन्थि कहते है। यकृत के बाद दुसरी सबसे बड़ी ग्रन्थि है। इस ग्रन्थि में लेंगरहैन्स दीपिका समुह पाया जाता है। इसमें α व β कोशिकाएं पाई जाती है। जिनमें α कोशिकाएं ग्लुकागोंन हार्मोन का स्त्रावण करती है। जो रक्त में ग्लुकोज के स्तर को बढ़ाता है।

β कोशिकाएं इंसुलिन हार्मोन का स्त्राव करती है। जो रक्त में ग्लुकोज को कम करता है। यह एक प्रकार की प्रोटिन है। जो 51 अमीनो अम्ल से मिलकर बनी होती है। इसका टीका बेस्ट व बेरिंग ने तैयार किया ।

इंसुलिन की कमी से मधुमेह(डाइबिटिज मेलिटस) नामक रोग हो जाता है व अधिकता से हाइपोग्लासिनिया रोग हो जाता है।

6. एड्रिनलिन ग्रन्थि :-

  • इसे अधिवृक्क ग्रन्थि भी कहते है। यह वृक्क के ऊपर स्थित होती है। यह ग्रन्थि संकट, क्रोध के दौरान सबसे ज्यादा सक्रिय होती है।
  • इस ग्रन्थि के बाहरी भाग को कार्टेक्स व भीतरी भाग को मेड्यूला कहते है।
  • कार्टेस से कार्टीसोल हार्मोन स्त्रावित होता है। जिसे जिवन रक्षक हार्मोन कहते है।
  • मेड्यूला में एड्रिनलीन हार्मोन स्त्रावित होता है जिसे करो या मरो हार्मोन भी कहते है। यह मनुष्य में संकट के समय रक्त दाब हृदयस्पंदन, ग्लुकोज स्तर, रक्त संचार आदि बढ़ा कर शरीर को संकट के लिए तैयार करता है।

7. पीनियल ग्रन्थि :-

यह ग्रन्थि अग्र मस्तिष्क के थैलेमस भाग में स्थित होती है। इसे तीसरी आंख भी कहते है। यह मिलैटोनिन हार्मोन को स्त्रावित करती है। जो त्वचा के रंग को हल्का करता है व जननंगों के विकास में विलम्ब करता है। इसे जैविक घड़ी भी कहते है।

8. जनन ग्रन्थियां :-

पुरूष – वृषण – टेस्टोस्टीरान

मादा – अण्डाश्य – एस्ट्रोजन व प्रोजेस्ट्रान

महत्वपूर्ण तथ्य :-

  • हार्मोन नाम बेलिस व स्टारलिंग ने दिया।
  • हार्मोन को रासायनिक संदेश वाहक भी कहते है।
  • हार्मोन क्रिया करने के बाद नष्ट हो जाते है।
  • किटों द्वारा विपरित लिंग को आकर्षित करने के लिए स्त्रावित किया गया पदार्थ फिरोमोन्स कहलाता है।
  • मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि यकृत है।
  • मानव शरीर की सबसे बड़ी अन्तः स्त्रावी ग्रंथी थायरॅाइड ग्रंथि है।

उत्सर्जन तंत्र :-

  • जीवों के शरीर में उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप बने विषैले अपशिष्ट पदार्थों  के निष्कासन को उत्सर्जन  कहा जाता है। इस प्रक्रिया में भाग लेने वाले अंग उत्सर्जी अंग कहलाते हैं।
  • नाक, फेफड़ा, त्वचा, यकृत, बड़ी आँत एव वृक्क मनुष्य के उत्सर्जी अंग हैं।
  • पाचन क्रिया के दौरान भोजन का कुछ हिस्सा अनपचा रह जाता है, जो बुरी आँत में पहुँचा दिया जाता है। यहाँ से वह ठोस मल के रूप में शरीर के बाहर गुदा द्वारा निकाल दिया जाता है।
  • मनुष्य में वृक्क की संख्या दो होती है।
  • प्रत्येक वृक्क का भार लगभग 140 ग्राम होता है।
  • वृक्क का निर्माण लगभग 1,30,000 सूक्ष्म नलिकाओं द्वारा होता है जिसे नेफ्रॉन कहा जाता है ।
  • नेफ्रॉन को वृक्क की कार्यात्मक इकाई कहा जाता है ।
  • वृक्क के काम में करने के कारण मनुष्य को जीवित रखने के लिए नामक आपात सेवा प्रदान की जाती है।
  • 24 घंटे में लगभग 2 लीटर मुत्र का उत्सर्जन होता है ।

कंकाल तंत्र :-

    कंकाल तन्त्र में अस्थियाँ तथा उनसे सम्बंधित संरचनाएँ सम्मिलित हैं जो शरीर का ढाँचा बनाती हैं और उसे निश्चित आकार प्रदान करती हैं। अस्थियों को तंत्र का अंग कहा जाता है ।

  • मानव शरीर में कुल अस्थियाँ 206 हैं ।
  • मानव शरीर की अस्थियों को पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है
  • खोपड़ी  खोपड़ी की अस्थियों की संख्या 8 होती है। यह एक सुदृढ़ रचना है जिसे मस्तिष्क कोष  याक्रेनियम  कहा जाता है।
  • चेहरे की अस्थियाँ —खोपड़ी से नीचे का भाग चेहरा होता है इसमें अस्थियों की संख्या 14 होती है।
  • धड़ की अस्थियाँ  धड़ की अस्थियों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कशेरूक दण्ड  होता है जिसे गुल्फिका कंकाल का मध्य आधार  कहा जाता है। मनुष्य का सम्पूर्ण कंकाल पदांगुलियाँ कशेरूक दण्ड में अस्थियों की संख्या 33 होती है। इसी कशेरूक दण्ड के अन्दर एक नली होती है जिसमें मेरूरज्जू रहता है। छाती की अस्थियों में 24 पसलियाँ होती है।
  • हाथ की अस्थियाँ —हाथ की प्रमुख अस्थिया में स्केपुला, रेडियस, अलना है।
  • पैरों की अस्थियाँ पैरों की प्रमुख अस्थिया पटेला, टार्सस, फीमर, टिबिया, फिबुला है।
  • शरीर की सबसे लम्बी अस्थि फीमर  होती है।
  • कान की स्टेपीस नामक अस्थि शरीर की सबसे छोटी अस्थि है।

श्वसन तंत्र :-

श्वसन एक ऑक्सीकारक एवं ऊर्जा प्रदान करने वाली प्रक्रिया है, जिसमें जटिल कार्बनिक यौगिकों के टूटने से सरल यौगिक बनते है और CO2 गैस मुक्त होती है। अर्थात् श्वसन का आशय ऐसी प्रक्रिया से है, जिसमें वायुमण्डलीय ऑक्सीजन शरीर की कोशिकाओं में पहुँचकर भोजन का ऑक्सीकरण या दहन सम्पूर्ण करती है तथा CO2 गैस बाहर निकलती है। श्वसन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को दो भागों में बाँटा जा सकता है |

बाह्य श्वसन :-

रुधिर एवं वायु के बीच O2 तथा CO2 का आदान-प्रदान बाह्य श्वसन कहलाता है। यह निम्नलिखित दो प्रकार से होता है:

1. श्वासोच्छवास :-

इसके अन्तर्गत फेफड़ों में निश्चित दर से वायु भरी एवं निकाली जाती है, जिसे साँस लेना भी कहते हैं। इसमें मुख्यतया दो क्रियाएँ होती हैं :

निःश्वसन :-

इस अवस्था में वायु वातावरण से वायु पथ द्वारा फेफड़े में प्रवेश करती है, जिसे नि: श्वसन कहते हैं। निः श्वसन में बाह्य अन्तरपर्शुक पेशियाँ सिकुड़ती हैं, पसलियाँ तथा स्टर्नम ऊपर तथा बाहर की और खिचतें हैं, जिससे वक्षगुहा का आयतन बढ़ जाता है एवं फेफड़ों में निम्न दाब उत्पन्न हो जाता है।

उच्छश्वसन :-

इस क्रिया में श्वसन के पश्चात वायु उसी वायु-पथ के द्वारा फेफड़े से बाहर निकलकर वातावरण में पुन: लौट आती है, जिस वायुपथ से वह फेफड़ों में प्रवेश करती है।

श्वासोच्छ्वास में प्रयुक्त वायु का संगठन

नाइट्रोजनऑक्सीजनकार्बन–डाइऑक्साइड
अन्दर ली गई वायु78.09%21%0.03%
बाहर निकाली गई वायु78.09%17%4%

2. गैसों का विनिमय :-

फेफड़ों के अन्दर गैसों का विनिमय होता है, यह प्रक्रिया घुली अवस्था या विसरणं प्रवणता (diffusion gradient) के आधार पर साधारण विसरण द्वारा होती है। इस क्रिया में फेफड़ों में O2 एवं CO2 का विनिमय उनके दाबों के अन्तर के कारण होता है। इन दोनों गैसों के विसरण की दिशा एक दूसरे के विपरीत होती है।

श्वासोच्छवास के फलस्वरूप वायु फेफड़े के चारों और विभिन्न वायुकोष्ठकों घना जाल उपस्थित रहता है। इस समय वायु की ऑक्सीजन महीन शिरा केशिकाओं की दीवार से होकर रुधिर में पहुँच जाती है।

गैसों का परिवहन :-

इसके अन्तर्गत O2 का परिवहन रुधिर में पाए जाने वाले लाल वर्णक हीमोग्लोबिन के द्वारा शरीर के विभिन्न कोशिकाओं तक होता है जबकि, CO2 का परिवहन कोशिकाओं से फेफड़ों तक निम्न प्रकार से होता है:

  • CO2 के 70% भाग का परिवहन पोटैशियम बाइकार्बोनेट एवं सोडियम बाइकार्बोनेट के रूप में होता है।
    • CO2 के 23% भाग का परिवहन हीमोग्लोबिन द्वारा।
    • CO2 के 7% भाग का परिवहन प्लाज्मा में घुलकर कार्बनिक अम्ल के रूप में होता है।

आन्तरिक श्वसन :-

शरीर के अन्दर रुधिर एवं ऊतक द्रव्य के बीच गैसीय विनिमय आन्तरिक श्वसन कहलाता है।

कोशिकीय श्वसन :-

कोशिकाओं में कार्बनिक पदार्थों; जैसे ग्लूकोज का ऑक्सीजन द्वारा ऑक्सीकरण की क्रिया कोशिकीय श्वसन कहलाती है। ऑक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर यह श्वसन वायवीय एवं अवायवीय होता है।

कोशिकीय श्वसन की क्रियाविधि :-

श्वसन क्रिया ग्लूकोस से प्रारम्भ होती है। यह ग्लाइकोलाइसिस तथा वायवीय एवं अवायवीय ऑक्सीकरण में विभाजित होती है। ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) इसे EMP पथ भी कहा जाता है, चूँकि इसके विभिन्न पदों की खोज क्रमशः एम्बडेन मेयरहॉफ तथा पारनास ने की थी।

ग्लाइकोलाइसिस की क्रिया कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में सम्पन्न होती है। इस चरण में ग्लूकोज के एक अणु से पाइरुविक अम्ल के दो अणुओं का निर्माण होता है। इसमें ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है अर्थात् यह चरण वायवीय एवं अवायवीय श्वसन दोनों में एक जैसा होता है।

ग्लूकोज के एक अणु से 686 कि कैलोरी ऊर्जा निकलती है अर्थात् 38 ATP का निर्माण होता है         ग्लूकोज के एक अणु से केवल 56 कि कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है अर्थात् 2 ATP का निर्माण होता है।

ग्लाइकोलाइसिस में ग्लूकोस के एक अणु से

  1. पाइरुविक अम्ल के दो अणु बनते हैं।
    1. ATP के चार अणु बनते हैं, परन्तु इस क्रिया में 2 ATP अणु खर्च होते हैं अर्थात् शुद्ध लाभ 2 ATP का होता है।
    1. NADH + H+ के दो अणु बनते हैं। ग्लाइकोलाइसिस की क्रिया में CO2 उत्पन्न नहीं होती है।

क्रैब्स चक्र :-

इस क्रिया की खोज हैन्स क्रैब्स ने की थी। इसे साइट्रिक अम्ल चक्र या ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र भी कहा जाता है। यह क्रिया माइटोकॉण्ड्रिया के अन्दर सम्पन्न होती है इस क्रिया के फलस्वरूप एसीटाइल Co-A का पूर्ण ऑक्सीकरण होता है फलस्वरूप H2O, CO2, NADH+H+ तथा ATP उत्पन्न होते हैं।

ऊर्जा का उत्पादन :-

पाइरुविक अम्ल के एक अणु के ऑक्सीकरण से ATP का एक अणु पाँच अणु NADH2, के व 1 अणु FADH2 का बनता है NADH2 के एक अणु से 3 अणु ATP के , जबकि FADH2 के एक अणु से ATP के 2 अणु प्राप्त होते हैं। इस प्रकार पाइरुविक अम्ल के एक अणु से 1+ ( 3 × 5 ) + ( 2 × 1) = 1+ 15 + 2 = 18 अणु ATP के बनते हैं। चूँकि ग्लूकोज के एक अणु से दो पाइरुविक अम्ल के अणु बनते हैं 2 × 18 = 36 अणु ATP, पाइरुविक अम्ल के दो अणुओं से प्राप्त होते हैं।

ग्लाइकोलिसिस के दौरान भी 2 ATP अणुओं का लाभ होता है। अतः ग्लूकोज के 1 अणु के ऑक्सीकरण से 2 + 36 = 38 ATP अणु प्राप्त होते हैं। स्पष्ट है कि हमारे तन्त्र में अधिकतम ATP अणुओं को उत्पादन क्रैब्स चक्र के दौरान होता है।

मानव श्वसन तन्त्र से जुड़े महत्वपुर्ण तथ्य :-

  • मनुष्य में श्वसन को नियन्त्रण करने वाला श्वसन केन्द्र मेड्यूला ऑब्लोंगेटा में होता है।
  • जब कार्बोहाइड्रेट का अवायवीय श्वसन होता है, तो श्वसन भागफल (RQ) अनन्त (infinite) होता है ।
  • हीमोग्लोबिन से CO (कार्बन मोनोक्साइड) के मिलने की क्षमता ऑक्सीजन की क्षमता से लगभग 250 गुना अधिक होती है।
  • हैमबर्गर प्रक्रिया का सम्बन्ध CO2 के परिवहन से है।
  • फेफड़ों में हैल्डेन प्रभाव हीमोग्लोबिन द्वारा O2 ग्रहण करने के कारण CO2 के बहिष्कार को प्रोत्साहित करता है, जबकि ऊतकों में यह O2 के बहिष्कार को प्रोत्साहित करता है।
  • श्वसन भागफल गैनाँग के रेसपाइरोमीटर द्वारा मापा जाता है।

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