संवैधानिक संशोधन :-
संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है।
इसमे संशोधन की तीन विधियों को अपनाया गया है –
- साधारण विधि द्वारा
- संसद के विशेष बहुमत द्वारा
- संसद के विशेष बहुमत और राज्य के विधान-मंडलों की स्वीकृति से संशोधन
साधारण विधि द्वारा :-
संसद की साधारण विधि द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर कानून बन जाता है।
इसके अंतर्गत राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति मिलने पर निम्न संशोधन किए जा सकते हैं-
- नए राज्योँ का निर्माण
- राज्यक्षेत्र, सीमा और नाम मेँ परिवर्तन
- संविधान की नागरिकता संबंधी अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातियो की प्रशासन संबंधी केंद्र द्वारा प्रशासित क्षेत्रोँ की प्रशासन संबंधी व्यवस्थाएं
विशेष बहुमत द्वारा संशोधन :-
- यदि संसद के प्रत्येक सदन द्वारा कुल सदस्योँ का बहुमत तथा और उपस्थित और मतदान मेँ भाग लेने वाले सदस्योँ के 2/3 मतों से विधेयक पारित हो जाए तो राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलते ही वह संशोधन संविधान का अंग बन जाता है।
- न्यायपालिका तथा राज्योँ के अधिकारों तथा शक्तियों जैसी कुछ विशिष्ट बातोँ को छोडकर संविधान की अन्य सभी व्यवस्थाओं मेँ इसी प्रक्रिया के द्वारा संशोधन किया जाता है।
- संसद के विशेष बहुमत एवं राज्य विधानमंडलों की स्वीकृति से संशोधन – संविधान के कुछ अनुच्छेदों मेँ संशोधन के लिए विधेयक को संसद के दोनों सदनोँ के विश्वास बहुमत तथा राज्योँ के कुल विधानमंडलों से आधे द्वारा स्वीकृति आवश्यक है।
इसके द्वारा किए जाने वाले संशोधन के प्रमुख विषय हैं-
- राष्ट्रपति का निर्वाचन, अनुच्छेद-54
- राष्ट्रपति निर्वाचन की कार्य पद्धति अनुच्छेद-55
- संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
- राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
- केंद्र शासित क्षेत्रोँ के लिए उच्च न्यायालय
- संघीय न्यायपालिका
- राज्योँ के उच्च न्यायालय
- संघ एवं राज्योँ मेँ विधायी संबंध
- सातवीँ अनुसूची का कोई विषय
- संसद मेँ राज्योँ का प्रतिनिधित्व
- संविधान संशोधन की प्रक्रिया से संबंधित उपबंध
महत्त्वपूर्ण संशोधनः
प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 :-
- इसके तहत सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को उन्नति के लिये विशेष उपबंध बनाने हेतु राज्यों को शक्तियाँ दी गई।
- कानून की रक्षा के लिये संपत्ति अधिग्रहण आदि की व्यवस्था।
- भमि सुधार तथा न्यायिक समीक्षा से जुड़े अन्य कानूनों को नौंवी अनुसूची में स्थान दिया गया।
- अनुच्छेद 31 में दो उपखंड 31(क) और 31 (ख) जोड़े गये।
- वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के तीन आधार जोड़े गये, ये थे- लोक आदेश, अपराध करने के लिये उकसाना तथा विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिये। प्रतिबंधों को और तर्क सांगत बनाया और इस प्रकार ये न्याययोज्य बना दिये गए।
- यह व्यवस्था की गई कि राज्य ट्रेडिंग और राज्य द्वारा किसी व्यवसाय या व्यापार के राष्ट्रीयकरण को केवल इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकता कि यह व्यापार या व्यवसाय के अधिकार का उल्लंघन करता है।
4वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1955 :-
- निजी संपत्ति के अनविार्य अधिग्रहण के स्थान पर दिये जाने वाले भत्ते क्षतिपूर्ति की मात्रा को न्यायालयों की जाँच के दायरे से बाहर किया गया।
- राज्य को किसी भी व्यापार का राष्ट्रीयकरण करने का अधिकार दिया गया (या प्राधिकृत किया गया।)
- नौवीं अनुसूची में कुछ और कानून (अधिनियम) जोड़े गये।
- अनुच्छेद 31(1) (कानूनों का संरक्षण) के दायरे को विस्तृत किया गया।
7वाँ संविधान संशोधन 1956 :-
- यह संशोधन राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट को तथा राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 को लागू करने के लिये किया गया था।
- द्वितीय तथा सातवीं अनुसूची में संशोधन किया गया।
- राज्यों के चार वर्गों की समाप्ति (भाग-क, भाग-ख, भाग-ग और भाग-घ) की गई और इनके स्थान पर 14 राज्यों एवं 6 संघ शासित प्रदेशों को स्वीकृति दी गई।
- उच्च न्यायालयों के न्यायक्षेत्र का विस्तार संघशासित प्रदेशों तक किया गया।दो या दो से अधिक राज्यों के लिये एक कॉमन (उभय) उच्च न्यायालय की स्थापना की व्यवस्था (प्रावधान) की गई।
- उच्च न्यायालय में अतिरिक्त एवं कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई।
9वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1960 :-
- भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच हुए समझौतों के अनुसरण में पाकिस्तान को कतिपय राज्य क्षेत्रों का हस्तांतरण करने की दृष्टि से यह संशोधन किया गया।
- इस समझौते के पश्चात् संघ ने इस मामले को उच्चतम न्यायालय के पास भेजा। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 3 के तहत किसी राज्य के भू-क्षेत्र को घटाने की संसद की शक्ति भारत के किसी भू-भाग को किसी दूसरे देश को सौंपने के मामले पर लागू नहीं होती।
- अतः किसी भारतीय भू-भाग को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करके ही किसी विदेशी राज्य को सौपा जा सकता है।
- पश्चिम बंगाल में स्थित बेरूबारी संघराज्य क्षेत्र को भारत-पाक समझौते (1958) के तहत पाकिस्तान को सौंप दिया गया।
10वाँ संशोधन अधिनियम, 1961 :-
दादरा और नागर-हवेली को भारतीय संघ में जोड़ा गया।
11वाँ संशोधन अधिनियम, 1961:-
- उपराष्ट्रपति के निर्वाचन प्रक्रिया में बदलाव किए गए-
- इसमें संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की बजाय निर्वाचक मंडल की व्यवस्था की गई।
- राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन को उपयुक्त निर्वाचक मंडल में रिक्तता के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
12वाँ संविधान संशोधन :- गोवा, दमन और दीव को भारतीय संघ में शामिल किया गया।
13वाँ संशोधन अधिनियम, 1962 :- नागालैंड को राज्य का दर्जा दिया गया तथा इसके लिये विशेष उपबंध किये गये।
14वाँ संशोधन अधिनियम, 1962 :- पुदुचेरी को भारतीय संघ में शामिल किया गया।
संघशासित प्रदेशों जैसे- हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, गोवा, दमन एवं दीव तथा पुदुचेरी के लिये विधानमंडल तथा मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई।
17वाँ संशोधन अधिनियम, 1964 :- यदि भूमि का बाज़ार मूल्य बतौर मुआवजा न दिया जाए तो व्यक्तिगत हितों के लिये भू- अधिग्रहण प्रतिबंधित कर दिया गया।नौवीं अनुसूची में 44 अतिरिक्त अधिनियमों की बढ़ोतरी की गई (जोड़ा गया)।
18वाँ संशोधन अधिनियम, 1966 :-
इसमें यह स्पष्ट किया गया कि संसद की नये राज्य के निर्माण की शक्ति का अर्थ यह भी है (या इसमें निहित है) कि संसद किसी दूसरे राज्य या संघशासित प्रदेश के किसी भाग को किसी दूसरे राज्य या संघशासित प्रदेश के साथ जोड़कर नया राज्य बना सकती है। इसी दौरान पंजाब और हरियाणा नामक दो नये राज्य बनाए गए।
21वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1967 :- सिंधी भाषा को आठवीं अनुसूची में 15वीं भाषा के रूप में शामिल किया गया।
24वाँ संशोधन अधिनियम, 1971 :- संसद को यह शक्ति दी गई कि वह अनुच्छेद 13 और 368 में संशोधन कर मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है।संविधान संशोधन विधेयक पर राष्ट्रपति को मंजूरी (अपनी स्वीकृति) देने के लिये बाध्य कर दिया गया।
25वाँ संशोधन अधिनियम, 1971 :- संपत्ति के मौलिक अधिकार में कटौती की गई।
यह भी व्यवस्था की गई कि अनुच्छेद 39 (ख)या (ग) में वर्णित नीति-निर्देशक तत्वों को प्रभावी करने के लिये बनाए गये किसी विधि को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह अनुच्छेद 14, 19 और 31 द्वारा मौलिक अधिकारों के संदर्भ में दी गई गारंटी का उल्लंघन करता है।
26वाँ संशोधन अधिनियम, 1971:- इसके तहत देशी राज्यों के भूतपूर्व नरेशों के विशेषाधिकारों तथा प्रिवीपर्स की सुविधाओं को समाप्त कर दिया गया।
31वाँ संशोधन अधिनियम, 1972 :- वर्ष 1971 की जनगणना के तहत भारत की जनसंख्या में वृद्धि दर्ज की गई।
लोकसभा की सीटों की संख्या को 525 से बढ़ाकर 545 कर दिया गया।
33वाँ संशोधन अधिनियम, 1974: अनुच्छेद 101 और 190 में संशोधन कर प्रावधान किया गया कि संसद और राज्य विधानमंडल के सदस्यों का त्यागपत्र अध्यक्ष/सभापति केवल तभी स्वीकार कर सकता है जब वह आश्वस्त हो जाए कि त्यागपत्र ऐच्छिक या वास्तविक है।
35वाँ संशोधन अधिनियम, 1975 :-
सिक्किम को दिये गये संरक्षित राज्य के दर्जे को समाप्त किया गया तथा उसे भारतीय संघ के एक सह-राज्य का दर्जा दिया गया।दसवीं अनुसूची को जोड़ा गया तथा उसमें सिक्किम को भारतीय संघ में शामिल करने संबंधी नियम एवं शर्ते स्पष्ट की गईं।
36वाँ संशोधन अधिनियम, 1975 :- सिक्किम को भारतीय संघ का पूर्ण राज्य बनाकर दसवीं अनुसूची को समाप्त कर दिया गया।
38वाँ संशोधन अधिनियम, 1975: राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की घोषाणा को गैर-वादयोग्य बना दिया गया।राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासकों द्वारा जारी अध्यादेशों को गैर-वाद योग्य घोषित किया गया । राष्ट्रपति को विभिन्न आधारों पर राष्ट्रीय आपात की उदघोषणा करने की शक्तियाँ दी गई।
39वाँ संशोधन अधिनियम, 1975 :- यह संशोधन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले की प्रतिक्रिया के संदर्भ में लाया गया था जिसमें न्यायालय ने समाजवादी नेता राजनारायणा की याचिका पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लोकसभा में निर्वाचन को अवैधानिक करार दिया था। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और लोकसभा अध्यक्ष से संबंधित विवादों को न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार से बाहर किया गया।यह तय किया गया कि इनसे संबंधित विवादों का निर्धारण संसद द्वारा सुनिश्चित किये गए प्राधिकरण द्वारा किया जाएगा।नौंवी अनुसूची में कुछ केंद्रीय अधिनियमों को जोड़ा गया।
42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976 :-
यह सबसे महत्त्वपूर्ण संशोधन है इसे लघु संविधान के रूप में भी जाना जाता है
तथा इसने स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों को प्रभावी बनाया।
- संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा अखंडता तीन नए शब्दों को जोड़ा गया।
- एक नये भाग-iv (क) में नागरिकों के लिये मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया।कैबिनेट की सलाह मानने के लिये राष्ट्रपति को बाध्य कर दिया गया।प्रशासनिक अधिकरणों तथा अन्य मामलों के लिये अधिकरणों की व्यवस्था की गई। (भाग (xiiv) (क) जोड़ा गया)वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2001 तक लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं की सीटों की संख्या को निश्चित कर दिया गया।संवैधानिक संशोधन को न्यायिक जाँच से बाहर किया गया।SC और HC के न्यायीक समीक्षा तथा रिट (writ) न्यायक्षेत्र की शक्तियों में कटौति की गई।लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में 5 से 6 वर्ष की बढ़ोतरी की गई।यह व्यवस्था की गई कि DPSP के क्रियान्वयन हेतु बनाए गए कानूनों को इस आधार पर अवैध करार नहीं दिया जा सकता है कि ये कानून मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं।
Continues
- संसद को राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से निपटने के लिये विधि बनाने की शक्तियाँ दी गई तथा यह स्पष्ट किया गया कि ये कानून मौलिक अधिकारों से प्रभावित नहीं होगें।तीन नये नीति-निदेशक तत्व जोड़े गए ये हैं- समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता, उद्योगों के प्रबंधन में कर्मकारों की सहभागिता, पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्द्धन और वन एवं वन्य जीवों का संरक्षण करना।भारत के किसी भाग में राष्ट्रीय आपात की उदघोषणा की व्यवस्था की गई।किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन की अवधि को एक-बार में 6 माह से बढ़ाकर एक वर्ष तक कर दिया गया।किसी भी राज्य में कानून और व्यवस्था की गंभीर स्थिति से निपटने के लिये केंद्र को सशस्त्र बलों को भेजने का अधिकार/शक्तियाँ दी गई।पाँच विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में भेजा गया। ये हैं- शिक्षा, वन, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, नापतौल एवं न्याय प्रशासन, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को छोड़कर अन्य सभी न्यायालयों का गठन एवं संगठन।संसद एवं राज्य विधानसभाओं से कोरम की आवश्यकता की समाप्ति की गई।अखिल भारतीय विधि सेवा के सृजन की व्यवस्था की गई।
- जाँच के पश्चात् दूसरे चरण में प्रतिनिधित्व करने के किसी सिविल सेवक के अधिकार को हटाकर
- अनुशासनात्मक कार्यवाही की प्रक्रिया को छोटा कर दिया गया (प्रस्तावित दंड के संदर्भ में)
43वाँ संशोधन अधिनियम, 1997 :-
- न्यायीक समीक्षा तथा रिट जारी करने के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायिक क्षेत्रधिकारों को पुनःस्थापित कर दिया गया।
- राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के संदर्भ में विधि बनाने की संसद की विशेष शक्तियों को समाप्त कर दिया।
44वाँ संशोधन अधिनियम, 1978 :-
- लोक सभा तथा राज्य विधान सभाओं के वास्तविक कार्यकाल को पुनःस्थापित कर दिया गया (अर्थात् पुनः 5 वर्ष कर दिया गया।)
- संसद एवं राज्य विधानमंडलों में कोरम की व्यवस्था को पूर्ववत रखा गया।संसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के संदर्भ को हटा दिया गया।संसद एवं राज्य विधानमंडलों की कार्यवाहियों की खबरों को समाचार पत्रों में प्रकाशन को संवैधानिक संरक्षण दिया गया।कैबिनेट की सलाह को पुनर्विचार के लिये एक बार लौटाने/ वापस भेजने की राष्ट्रपति को शक्तियाँ दी गई। परंतु पुनर्विचारित सलाह को राष्ट्रपति को मानने के लिये बाध्य कर दिया गया।अध्यादेशों को जारी करने के संदर्भ में राष्ट्रपति, राज्यपालों एवं प्रशासकों की अंतिम संतुष्टि वाले उपबंध को समाप्त कर दिया गया।सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की कुछ शक्तियों को पुनः बहाल कर दिया गया।राष्ट्रीय आपात के संदर्भ में ‘आंतरिक अशांति’ शब्द के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द को रखा गया।राष्ट्रपति द्वारा कैबिनेट की लिखित सिफारिश के आधार ही राष्ट्रीय आपात की घोषणा करने की व्यवस्था की गई।राष्ट्रपति शासन तथा राष्ट्रीय आपातकाल के संदर्भ में कुछ प्रक्रियात्मक सुरक्षा (सेफगार्ड्स) के उपाय किये गये।मौलिक अधिकारों की सूची में संपत्ति के अधिकार को समाप्त कर दिया गया तथा उसे केवल एक विधिक अधिकार के रूप में रखा गया।अनुच्छेद 20 तथा 21 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किये जा सकने की व्यवस्था की गई।
- उस उपबंध को हटा दिया गया जिसने न्यायपालिका की राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अध्यक्ष के निर्वाचन संबंधी विवादों पर निर्णय देने की शक्ति छीन ली थी।
50वाँ संशोधन अधिनियम, 1984 :-
संसद को खुफिया संगठनों या सशस्त्र बलों या खुफिया सूचना हेतु स्थापित दूरसंचार प्रणालियों में कार्य करने वाले व्यक्तियों के मौलिक अधिकारेां को प्रतिबंधित करने की शक्ति दी गई।
52वाँ संशोधन अधिनियम, 1985 :-
‘दल-बदल’ तथा आया राम और गया राम’ राजनीति को रोकने के लिये। संसद तथा विधानमंडलों के सदस्यों को दल-बदल के आधार पर अयोग्य ठहराने की व्यवस्था की गई तथा इस संदर्भ में विस्तृत जानकारी के लिये एक नई अनुसूची (दसवीं अनुसूची) जोड़ी गई।
58वाँ संशोधन अधिनियम, 1987 :- राष्ट्रपति को संविधान का प्राधिकृत हिंदी पाठ प्रकाशित कराने का अधिकार दिया गया (अनुच्छेद 394)।
61वाँ संशोधन अधिनियम, 1989 :- लोक सभा तथा राज्य विधान सभाओं के चुनावों में मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
65वाँ संशोधन अधिनियम, 1990 :- SC और ST के लिये राष्ट्रीय आयोग में विशेष अधिकारी के स्थान पर एक बहुसदस्यीय राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की व्यवस्था की गई। (SC अनुसूचित जाति। ST अनुसूचित जनजाति।)
69वाँ संशोधन अधिनियम, 1991 :-
- केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली को विशेष दर्जा देते हुए उसे ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली’ बनाया गया।
- दिल्ली के लिये 70 सदस्यीय विधानसभा तथा 7 सदस्यीय मंत्रिपरिषद की व्यवस्था भी की गई।
71वाँ संशोधन अधिनियम, 1992 :-
कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।
इसके साथ ही अनुसूचित भाषाओं की संख्या 18 हो गई।
73वाँ संविधान संशोधन 1992:
पंचायती राज संस्थानों को संवैधानिक दर्जा तथा संरक्षण प्रदान किया गया।
इसके लिये ‘पंचायत’ नाम से नया भाग-IX जोड़ा गया तथा 11वीं अनुसूची भी जोड़ी गई जिसमें 29 विषय थे।
74वाँ संविधान संशोधन 1992:
शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा तथा संरक्षण दिया गया।
इसके तहत भाग-IX (क) के नाम से एक नया भाग जोड़ा गया।
इसे नगरपालिका कहा गया तथा एक नई अनुसूची-12वीं अनुसूची जोड़ी गई और उसके तहत 18 विषय रखे गए।
77वाँ संविधान संशोधन 1995:
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के मामले में आरक्षण देने की व्यवस्था की गई।
उस संशोधन से प्रोन्नति के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को निरस्त कर दिया गया।
80वाँ संविधान संशोधन 2000:
इस संशोधन के तहत केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व के बँटवारे की वैकल्पिक व्यवस्था की गई।
यह व्यवस्था 10वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर की गई थी
जिसमें यह कहा गया था कि केंद्रीय करों और शुल्कों का 29% राज्यों के बीच बाँट दिया जाना चाहिये।
81वाँ संविधान संशोधन 2000:
इस संशोधन के तहत राज्यों को अधिकृत किया गया कि वह किसी वर्ष खाली पड़ी हुई आरक्षित सीटों को अलग से रिक्त सीटें माने तथा उन्हें अगले किसी वर्ष में भरे जाने की व्यवस्था करें। इस तरह की अलग से रिक्त पड़ी सीटों को उस वर्ष भरी जाने वाली सीटों, जो कि 50% आरक्षण की सीमा को पूरा करती हैं के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिये। इस तरह इस संशोधन में बैकलॉग पदों (Vacancies) में आरक्षण की 50% की सीमा को समाप्त कर दिया गया।
82वाँ संविधान संशोधन 2000:-
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिये केंद्र एवं राज्यों की लोक सेवाओं में पदोन्नति में आरक्षण के संदर्भ में परीक्षा में अर्हता के अंकों में छूट देने या मूल्यांकन के मानकों में ढील देने की व्यवस्था की गयी।
84वाँ संविधान संशोधन 2001:
लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में सीटों के पुनर्निर्धारण पर अगले 25 वर्षो (वर्ष 2026 तक) तक के लिये प्रतिबंध बढ़ा दिया गया।
इसका उद्देश्य जनसंख्या को सीमित करने के उपायों को प्रोत्साहित करना था।
85वाँ संविधान संशोधन 2001 :-
अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सरकारी सेवकों को पदोन्नति में आरक्षण के संदर्भ में ‘परिणामिक वरिष्ठता’ को जून 1995 से पूर्वव्यापी प्रभाव से मानने की व्यवस्था की गई।
86वाँ संविधान संशोधन 2002 :-
अनुच्छेद 21(A) के तहत प्रारंभिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया। तथा नीति-निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 45 की विषय वस्तु को बदल दिया गया।
अनुच्छेद 21(A) में एक नया मौलिक कर्त्तव्य जोड़ा गया।
87वाँ संविधान संशोधन 2003 :-
राज्यों में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण तथा युक्तिकरण का आधार वर्ष 2001 की जनगणना को बनाया गया।
इससे पहले 84वें संशोधन के तहत वर्ष 1991 की जनगणना को आधार बनाया गया था।
89वाँ संविधान संशोधन 2003 :-
- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये राष्ट्रीय आयेाग को दो भागों में विभाजित कर दिया गया-
- राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद 388)
- राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग [अनुच्छेद 388 (A)]
91वाँ संविधान संशोधन 2003 :-
- मंत्रिपरिषद के आकार को सीमित करने के लिये दल बदलुओं को सार्वजनिक पद प्राप्त करने से रोकने तथा दल-बदल कानून को और मजबूत करने हेतु निम्नलिखित प्रावधान किये गए।
- केंद्रीय मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा की कुल क्षमता या सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
- संसद के किसी भी सदन का किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य यदि दल-बदल के आधार पर अयोग्य ठहराया जाता है तो वह सदस्य मंत्री बनने के लिये भी अयोग्य या निरर्हक होगा।
- किसी राज्य में मंत्रियों की कुल संख्या मुख्यमंत्री सहित उस राज्य की विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 15% से अधिक नहीं होगी। परंतु किसी राज्य के मुख्यमंत्री सहित मत्रियों की न्यूनतम संख्या 12 से कम नहीं होगी।
- राज्य विधायिका के किसी भी सदन का सदस्य चाहे वह किसी भी राजनितिक दल से हो यदि दल-बदल के आधार पर अयोग्य ठहराया जाता है तो वह मंत्री बनने के लिये भी अयोग्य होगा।
- संसद या राज्य विधानमंडलों के किसी भी सदन का कोई भी पार्टी का सदस्य, यदि दल-बदल के आधार पर यदि अयोग्य करार दिया जाता है तो वह सदस्य लाभ के किसी राजनीतिक पद के लिये भी अयोग्य माना जाएगा।
92वाँ संविधान संशोधन 2003 :-
आठवीं अनुसूची में चार नई भाषाएँ जोड़ी गई।
वे है- बोडो, डोगरी, मैथिली, और संथाली।
इनके साथ ही संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाओं की कुल संख्या बढ़कर 22 हो गई।
93वाँ संविधान संशोधन 2005 :-
राज्य को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गो या SCs या STs के लिये सरकारी एवं निजी सभी तरह के शैक्षणिक संस्थानों में (राज्य द्वारा सहायता प्राप्त अथवा गैर सहायता प्राप्त) विशेष प्रावधान करने का अधिकार दिया गया। इनमें अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थान शामिल नहीं है- [अनुच्छेद-15 (5)]।
96वाँ संविधान संशोधन 2011 :-
‘उरिया’ शब्द को ‘उड़िया’ शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया गया।
आठवीं अनुसूची में शामिल ‘उड़िसा’ भाषा को अब ‘ओडिया’ कहा जाएगा।
97वाँ संविधान संशोधन 2011 :-
- सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा तथा संरक्षण दिया गया। संविधान में तीन निम्नलिखित बदलाव किये गए।
- सहकारी समिति बनाने के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया (अनुच्छेद-19)।
- सहकारी समितियों को बढ़ावा देने के लिये उन्हें नीति-निदेशक तत्त्वों में शामिल किया गया।
- संविधान में सहकारी समिति के नाम से एक नया भाग IX-B (Part IX-B) जोड़ा गया।
99वाँ संविधान संशोधन 2014 :-
उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर
एक नए निकाय “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” (National Judicial Appintment Commission-NJAC) की स्थापना की गई।
हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2015 में इस संशोधन को
असंवैधानिक एवं शून्य घोषित करते हुए कॉलेजियम प्रणाली को फिर से बहाल कर दिया।
100वाँ संविधान संशोधन 2014 :-
भारत और बांग्लादेश के बीच वर्ष 1974 का भूमि सीमा समझौता तथा इसके प्रोटोकॉल वर्ष 2011 के अनुपालन में भारत द्वारा कुछ भू-भागों का अधिग्रहण एवं कुछ अन्य भू-भागों को बांग्लादेश को हस्तांतरण किया गया। (भूखंडों का आदान- प्रदान तथा अवैध अधिग्रहण को हस्तांतरित कर)।
101वाँ संविधान संशोधन 2017:-
- वस्तु एवं सेवा कर (GST) की शुरुआत की गई।
- यह (GST) एक अप्रत्यक्ष कर है जो भारत में वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति पर लगता है।
- यह एक व्यापक बहुचरणीय, गंतव्य आधारित कर है।
- यह इस संदर्भ में व्यापक जो यह कुछ ही करों को छोड़कर अन्य सभी अप्रत्यक्ष करों को समाहित करता है।
102वाँ संविधान संशोधन 2018 :-
- सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अधीन गठित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया।
- संविधान में अनुच्छेद 338 तथा 338(A) के साथ 388(B) को भी शामिल किया गया
- जिनका संबंध राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग से है।
103 वाँ संविधान संशोधन 2019 :-
- स्वतंत्र भारत में पहली बार आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये आरक्षण की व्यवस्था की गई।
- अनुच्छेद 16 में संशोधन कर सार्वजनिक रोजगार में
- आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई।
104 वाँ संविधान संशोधन 2019 :-
इस अधिनियम के तहत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन किया गया और लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों (SC) एवं जनजातियों (ST) के लिए आरक्षण की अवधि को 10 वर्ष के लिए और बढा दिया गया था । इससे पहले इस अरक्षण की सीमा 25 जनवरी 2020 थी । 104वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम ने लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में एंग्लो- इंडियन के लिए सीटों के आरक्षण को समाप्त कर दिया ।
105 वाँ संविधान संशोधन 2021 :-
इस संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति केवल केंद्र सरकार के उद्देश्यों के लिए
सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची को अधिसूचित कर सकते हैं।
यह केंद्रीय सूची केंद्र सरकार द्वारा तैयार और अनुरक्षित की जाएगी।
इसके अलावा, यह राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को सामाजिक और
शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की अपनी सूची तैयार करने में सक्षम बनाता है।
संविधान का अनुच्छेद- 338B केंद्र और राज्य सरकारों को सामाजिक और
शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को प्रभावित करने वाले सभी प्रमुख नीतिगत मामलों पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) से परामर्श करना अनिवार्य करता है।
संशोधन द्वारा राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची तैयार करने से संबंधित मामलों के लिए इस अनिवार्यता से छूट दी गई है।