राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग
ST SC Commission भारतीय संविधान के अनुच्छेद-338 A के अंतर्गत एक संवैधानिक राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन किया गया है । इसके अतिरिक्त अन्य राष्ट्रीय आयोग जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग (1992) , राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (1993) , राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (2007) आदि संवैधानिक आयोग ना होकर सांविधिक वैधानिक आयोग हैं जिनकी स्थापना संसद के अधिनियम द्वारा की गई है । ST SC Commission
आयोग की स्थापना :-
65 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1990 के द्वारा अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए एक बहु-सदस्यीय राष्ट्रीय अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना की गयी ,किंतु 89 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के द्वारा इस आयोग को दो भागों में विभाजित कर दिया गया । ST SC Commission
● राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद-338 के अंतर्गत स्थापना)
● राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (अनुच्छेद-338 A के अंतर्गत स्थापना)
वर्ष 2004 में एक पृथक राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग अस्तित्व में आया , जिसमें एक अध्यक्ष व उपाध्यक्ष तथा तीन अन्य सदस्य( कुल 5 सदस्य) होते हैं । जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा उनकी सेवा-शर्ते व कार्यकाल भी राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाती है । सामान्य कार्यकाल 3 वर्ष का होता है ।
आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को देता है , राष्ट्रपति रिपोर्ट को संसद तथा संबंधित राज्यों के राज्यपाल को भेजता है जो इसे विधानमंडल के समक्ष रखता है । इसे दीवानी न्यायालय की शक्ति प्राप्त होती हैं । यह आयोग पिछड़े वर्गों एवं आंग्ल भारतीय समुदाय के संबंध में भी कार्य करता है ।
कार्य :-
❏ अनुसूचित जनजातियों के हितों का संरक्षण तथा उससे संबंधित मामलों की जांच की सुनवाई करना । ST SC Commission
❏ ST SC Commission अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक व आर्थिक विकास से संबंधित योजनाओं के निर्माण के समय सहभागिता व उचित परामर्श देना ।
❏ राष्ट्रपति के आदेशानुसार अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक , आर्थिक व संवैधानिक संरक्षण संबंधित सौपें गए किसी कार्य को संपन्न करना ।
❏ अनुसूचित जनजाति के संबंध में किए गए कार्यों बारे में राष्ट्रपति को प्रतिवर्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत करना ।
अन्य कार्य :-
वर्ष 2005 में राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण ,विकास व् सुरक्षा के लिए आयोग के कई अन्य कार्य में निर्धारित किए गए हैं-
● वन क्षेत्र में रह रही अनुसूचित जनजातियों को स्वामित्व का अधिकार देने संबंधित उपाय ।
● जनजातियों के विकास के लिए योजनाओं का निर्माण ।
● पेसा अधिनियम-1996 का पूर्ण क्रियान्वयन ।
● जनजातियों द्वारा झूम खेती के प्रचलन को कम करने संबंधित उपाय ।
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग :-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-338 के अंतर्गत एक संवैधानिक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का गठन किया गया है । इसके अतिरिक्त अन्य राष्ट्रीय आयोग जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग (1992) , राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (1993) , राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (2007) आदि संवैधानिक आयोग ना होकर सांविधिक वैधानिक आयोग हैं जिनकी स्थापना संसद के अधिनियम द्वारा की गई है ।
आयोग की स्थापना :-
65 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1990 के द्वारा अनुसूचित जातियों व् अनुसूचित जनजातियों के लिए एक बहु-सदस्यीय राष्ट्रीय अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना की गयी ,किंतु 89 संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के द्वारा इस आयोग को दो भागों में विभाजित कर दिया गया ।
● राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद-338 के अंतर्गत स्थापना)
● राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (अनुच्छेद-338 A के अंतर्गत स्थापना)
वर्ष 2004 में एक पृथक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग अस्तित्व में आया , जिसमें एक अध्यक्ष व उपाध्यक्ष तथा तीन अन्य सदस्य ( कुल 5 सदस्य) होते हैं । जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा उनकी सेवा-शर्ते व कार्यकाल भी राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाती है । सामान्य कार्यकाल 3 वर्ष का होता है ।
आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को देता है , राष्ट्रपति रिपोर्ट को संसद तथा संबंधित राज्यों के राज्यपाल को भेजता है जो इसे विधानमंडल के समक्ष रखता है । इसे दीवानी न्यायालय की शक्ति प्राप्त होती हैं । यह आयोग पिछड़े वर्गों एवं आंग्ल भारतीय समुदाय के संबंध में भी कार्य करता है ।
कार्य :-
❏ अनुसूचित जातियों के हितों का संरक्षण तथा उससे संबंधित मामलों की जांच की सुनवाई करना ।
❏ अनुसूचित जातियों के सामाजिक व आर्थिक विकास से संबंधित योजनाओं के निर्माण के समय सहभागिता व उचित परामर्श देना ।
❏ राष्ट्रपति के आदेशानुसार अनुसूचित जातियों के सामाजिक , आर्थिक व संवैधानिक संरक्षण संबंधित सौपें गए किसी कार्य को संपन्न करना ।
अनुसूचित जाति के संबंध में किए गए कार्यों बारे में राष्ट्रपति को प्रतिवर्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत करना ।